Wednesday, June 10, 2009

मौन करुणा

मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ |

जानता हूँ इस जगत में फूल की है आयु कितनी ,
और यौवन की उभरती साँस में है वायु कितनी ,
इसलिए आकाश का विस्तार सारा चाहता हूँ |
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ ||

प्रश्न-चिन्हों में उठी हैं भाग्य-सागर की हिलोरें,
आँसुओं से रहित होंगी क्या नयन की नमित कोरें।
जो तुम्हे कर दे द्रवित वह अश्रु-धारा चाहता हूँ ,
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ ||

जोड़ कर कण - कण कृपण आकाश ने तारे सजाए,
जो की उज्ज्वल हैं पर क्या किसी के काम आए ,
प्राण मैं तो मार्ग दर्शक बस एक तारा चाहता हूँ |
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ ||

यह उठा कैसा प्रभंजन जुड़ गयी जैसे दिशाएँ,
एक तरणी एक नाविक और कितनी आपदाएं ,
क्या करूं मझधार में ही मैं किनारा चाहता हूँ |
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ ||

राम कुमार वर्मा

Wednesday, April 1, 2009

सच है महज़ संघर्ष ही

सच हम नही, सच तुम नही, सच है महज़ संघर्ष ही |

संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या की तुम |
जो नत हुआ वह मृत हुआ, ज्यों वृंत से झर कर कुसुम ||
जो लक्ष्य भूल रुका नही,
जो हार देख झुका नही,
जिसने प्रणय पाथेय मन जीत उसकी ही रही|
सच हम नही, सच तुम नही, सच है महज़ संघर्ष ही |

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे|
जो है जहाँ, चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे|
जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
काटें चुभे कलियाँ खिले,
हारे नही इंसान , संदेश जीवन का यही|
सच हम नही, सच तुम नही, सच है महज़ संघर्ष ही |

हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दे इस प्यार को|
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मझधार को |
जो साथ फूलों के पले,
जो ढाल पाते ही ढले,
वह जिंदगी क्या जिंदगी, जो सिर्फ़ पानी सी बही|
सच हम नही, सच तुम नही, सच है महज़ संघर्ष ही |

संसार सारा आदमी की चल देख हुआ चकित|
पर झांक के देखो दृगों में, है सभी प्यासे थकित|
जब तक बंधी है चेतना,
जब तक ह्रदय दुःख से घना,
तब तक न मानूंगा कभी, इस राह को ही मैं सही|
सच हम नही, सच तुम नही, सच है महज़ संघर्ष ही |

अपने ह्रदय का सत्य अपने आप हमको खोजना|
अपने नयन का नीर अपने आप हमको खोजना|
आकाश सुख देगा नही,
धरती पसीजी है कहीं,
जिससे ह्रदय हो बल मिले, है ध्येय अपना तो वही|
सच हम नही, सच तुम नही, सच है महज़ संघर्ष ही |

जगदीश गुप्त

Sunday, March 1, 2009

जीवन की आपाधापी में

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला|

हरिवंश राय बच्चन