Monday, November 5, 2012

आत्म-परिचय

मैं जग जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ।।

मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ, 
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ।
जग पूछ रहा उनको जो जग की गाते हैं,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ।।

मैं निज उर के उदगार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ।
है यह अपूर्ण संसार, न भाता मुझको,
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ।।



मैं जला के ह्रदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुःख दोनों में मग्न रहा करता हूँ।
जग भव-सागर तरने को नाव बनाये,
मैं मन-मौजों पर मस्त बहा करता हूँ।।

मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ।
जो मुझे हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय! किसी की याद लिए फिरता हूँ।।

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं हैं, हाय, जहाँ पर दाना।
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सिखा रहा हूँ, सीखा गया भूलना।।

मैं और, और, जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाटा।
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति-पग से उस पृथ्वी को ठुकराता।।

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ।
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं वह खँडहर का भाग लिए फिरता हूँ।।

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते हो छंद बनाना।
क्यों कवी कहकर संसार मुझे अपनाये,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना।।

मैं दीवानों का वेश किये फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ,
जिसको सुनकर जग झूम उठे लहराए,
मैं मस्ती का सन्देश लिए फिरता हूँ।।
हरिवंश राय बच्चन

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